Wednesday, February 20, 2013

अशिक्षा, आतंकवाद, गरीबी और मुसलमानों की तरक्की का रास्ता

भारत के मुसलमान दुनिया की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी हैं. खुद भारत में यह सेकूलर ताने-बाने को मज़बूत बनाये रखने की एक अहम कड़ी है. इन्हें दुनिया में साम्राज्यवाद के खिलाफ़ एक बड़ी ताक़त माना जाता है. आज़ादी पाने के बाद घोर सांप्रदायिक माहौल में भी मुसलमानों ने सेकुलर भारत को चुना और अपने बाप-दादा की मिट्टी को अपना वतन बनाया.
हजारों मजदूर किसान व मज़हबी उलेमा ने शहादतें दी. देश की फिरकावाराना हम आहंगी इनके बिना अधूरी मानी जाती है. भारत में सभी कौमों के साथ मिलकर रहना पसंद करते हैं.
खून से लथपथ आजादी की सुबह के साथ हमारा मुल्क खुशहाली की तरफ बढ़ा और नए भारत के रहनुमाओं ने उजड़े देश की तरक्की के लिए मिक्स इकोनॉमी का रास्ता चुना. इस राह में कम से कम खेतिहर किसान मजदूर खुश थे. लेकिन राजीव गांधी के गुज़रने के बाद मनमोहन सिंह की आर्थिक पॉलिसी ने भारत को सुपर पावर बनने का सपना दिखाया. सपने देखने में कोई बुराई नहीं, लेकिन जिन सपनों में देश के अधिकतर ग़रीब मजदूर व अल्पसंख्यक के हितों का ध्यान न हो, कभी कभार यह सपना अपना नहीं लगता.
2011 के आते ही कांग्रेस के लीडर राज्य सभा सदस्य अर्जुन सेन गुप्ता की कमेटी, जिसे देश की असली ताक़त यानी ग़रीबी अमीरी की प्रतिशत का पता करना था, ने बताया कि देश के 73 करोड़ लोग आज भी 8-20 रूपए पर गुज़र बसर करते हैं. मैं सोचता हूं कि यह 73 करोड़ लोग कौन हैं? हिन्दू हैं? मुसलमान हैं? सिख है? ईसाई हैं? दिल पर हाथ रखकर जान लीजिएगा. इनका मज़हब ग़रीबी है.
जिनका मज़हब अमीरी था, उनके हाथ में देश की पूंजी का सबसे बड़ा हिस्सा आया. अम्बानी जैसों ने घरों पर ही हजारों करोड़ खर्च कर दिए. तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि भारत के 40 करोड़ लोगों को पूरी खुराक नहीं मिल पाती. एक दिन में 2 मजदूर महाजन के ज़ुल्म से मर जाते हैं. हर 1 घंटे में बेटी-बहन का बलात्कार होता है.
अमीरों का मज़हब तो विलासिता है लेकिन इन बेबसों को किस मज़हब से जोड़ा जाये. मज्लूमी, ग़रीबी, मुफलसी के अलावा इनका मज़हब कुछ नहीं. जानने की कोशिश करनी चाहिए कि इस मुल्क में 73 करोड़ लोगों या 'मुसलमानों' की समस्याएं क्या हैं. रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, रोज़गार और बराबरी का दर्जा. सभी को समान अवसर चाहिए. सस्ती शिक्षा, रोज़गार या इसके लिए सरकार कम दरों पर कम से कम क़र्ज़ दे.
चलिए आज खास तौर पर मुसलमानों की बात करते हैं. यूं तो मुसलमानों की कयादत करने के लिए हर पार्टी में सेल है. उनके नेता हैं. भारत में तकरीबन सैकड़ों फलाह बहबूद की बात करने वाली अंजुमने हैं. हर तरफ आप देखे तो टोपियां दाढ़ी में सजे हज़रात कौम की लडाई के लिए हर वक़्त तैयार रहते दिखते हैं. बहुत संघर्ष के मैदान में लड़ते भी हैं. लेकिन ज़मीनी लीडरशिप और काम न होने से बुनियादी मसले दब जाते हैं या रमजान की सियासी इफ्तार की पार्टियों तक तमाम हो जाते हैं.
यह इसलिए भी है कि मुसलमानों का शिक्षित तबका सियासत को लानत भेजकर बड़ी गंदी चीज़ है दूर हो गया. जिससे मुसलमानों का बड़ा नुक्सान हुआ और खासकर वामपंथी विचार के मुसलमान राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रिय मुद्दों में व्यस्त हो गए. राजनीति में दौलत का खेल शुरू हुआ उसने और बेडा गरक किया. हमारे शिक्षित राजनीतिक लीडरों को वक़्त ही नहीं मिला कि ज़मीन पर जाते. उन्हें लगा की अगर उन्होंने मुसलमानों की बेहतरी की बात की तो कही 'आईडेंटिटी राजनीति' करने के आरोप न लगे, इसी का नतीजा हुआ की राजनीति में बिल्डर माफिया, सरगना और अपराधियों के लिए रास्ते खुल गए. वो मुसलमानों को क्या देते या क्या दिया हम सबको मालूम है. लेकिन इमानदारी से हम प्रोग्रेसिव मुसलमानों की बदहाली की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए कि जिस तरह का हस्तक्षेप हमें करना था हम नहीं कर पाए. लेकिन अभी भी कोई देर नहीं हुई है.

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