Monday, February 11, 2013

A Letter about late Justice in Gujrat Riots

प्रिय शरीफ़ा बीबी,

तुमसे हुई उस छोटी सी मुलाक़ात के बाद अब भी मैं तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ.

तुम इतनी ज़िद्दी क्यों हो? जो कुछ हुआ उसे भूल जाओ ना !

दस साल गुज़र गए हैं. दुनिया कहाँ से कहाँ चली गई. आठ साल के बच्चे अब अठारह साल के नौजवान हो चले हैं.

देखों तुम्हारे शहर की सड़कें कितनी चौड़ी हो गई हैं. कितनी तो ऊँची ऊँची कॉलोनियाँ बन गई हैं. कारें, कितनी तो चमचमाती कारें हो गई हैं. और शॉपिंग मॉल्स?

अब तो लगातार तीसरी बार तुम्हारे रहनुमा तुम्हें विकास यानी तरक़्क़ी की राह पर ले जाने को तैयार हैं.

पर तुम हो कि अब भी हर आने जाने वाले को वही पुरानी कहानी सुनाती हो.

जैसे कि मुझे सुनाई तुमने अपनी रामकहानी कि कैसे उस सुबह तुम चाय पी के बैठी थीं और अचानक तुमने देखा कि टुल्ले के टुल्ले आ रहे थे. हथियारों से लैस लोगों की भीड़.

कैसे तुम और तुम्हारा आदमी पुलिस वालों के पास मदद माँगने पहुँचे और फिर पुलिस वालों ने तुम्हें ये कह कर भगा दिया कि आज तुम्हारा मरने का दिन है, वापिस घर जाओ.

अब ऐसी भारी भीड़ के सामने पुलिस वाले क्या कहते भला? बोर हो गया मैं तुम्हारी दास्तान सुनकर.

और अब तुम ये याद करके करोगी भी क्या कि जब तुम और तुम्हारे बच्चे जान बचाने को इधर-उधर भाग रहे थे, तुम्हारा सबसे बड़ा बेटा पीछे छूट गया?

ये याद करके भी क्या करोगी कि उसको भीड़ ने पाइप, लाठियों और तलवारों से मारा.

और ये याद करके भी क्या करोगी कि जब उसका कत्ल किया जा रहा था तो तुम जाली के पीछे से छिपकर देख रही थी और तुम्हारी आँखों के सामने ही भीड़ ने उसपर मिट्टी का तेल डालकर उसे जला डाला?

देखो सब आगे बढ़ गए हैं. तुम कब तक उन यादों में उलझी रहोगी. तुम लोगों की सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि तुम भूल नहीं सकते.

ग़ुस्सा सबको आया था तब. आया था कि नहीं? सब पढ़े-लिखे अँग्रेज़ी बोलने वाले लोगों ने रुँधे गले से कहा था - दिस इज़ अनएक्सेप्टेबल.

फिर एक्सेप्ट कर लिया ना?

अमिताभ बच्चन ने किया. अंबानी ने किया. रतन टाटा ने किया.

शरीफ़ा बीबी तुम बड़ी कि रतन टाटा? तुम बड़ी कि अंबानी और अमिताभ बच्चन? रहो अपनी ज़िद पर अड़ी हुई. अरे कहाँ इतने नामवर लोग और कहाँ तुम? कुछ सोचो.

अब देखो ना, अहमदाबाद में अपने होटल के कमरे में बैठकर जिस समय तुमको मैं ये ख़त लिख रहा हूँ, टेलीविज़न की स्क्रीन से पूरे देश का ग़ुस्सा फटा पड़ रहा है.

दिल्ली की एक बस में चार लोगों ने नर्सिंग की पढ़ाई कर रही 23 साल की एक लड़की के साथ चार लड़कों ने बलात्कार किया, लोहे के सरियों से उसके पेट पर इतने प्रहार किए कि उसकी आँते तक कुचल गईं. उस लड़की और उसके दोस्त के कपड़े उतारकर हमलावर उन दोनों को चलती बस से फेंक कर चलते बने.

अभी फिर से सभी नेता और अभिनेता रो रहे हैं. कह रहे हैं कि दिस इज़ अनएक्सेप्टेबल.

आज जिसे अनएक्सेप्टेबल कहा जाता है, पढ़े लिखे लोग कल उसे एक्सेप्टेबल मान लेते हैं या फिर उसका ज़िक्र ही नहीं करते.

तुम्हारी क्या मत्ति मारी गई है, शरीफ़ा बीबी? तुम भी धीरे से कहना सीखो --दिस इज़ अनएक्सेप्टेबल. और फिर भूल जाओ.

होश की दवा खाओ, शरीफ़ा बीबी, होश की दवा!

Photo: प्रिय शरीफ़ा बीबी,    तुमसे हुई उस छोटी सी मुलाक़ात के बाद अब भी मैं तुम्हारे बारे में सोच रहा हूँ.    तुम इतनी ज़िद्दी क्यों हो? जो कुछ हुआ उसे भूल जाओ ना !    दस साल गुज़र गए हैं. दुनिया कहाँ से कहाँ चली गई. आठ साल के बच्चे अब अठारह साल के नौजवान हो चले हैं.    देखों तुम्हारे शहर की सड़कें कितनी चौड़ी हो गई हैं. कितनी तो ऊँची ऊँची कॉलोनियाँ बन गई हैं. कारें, कितनी तो चमचमाती कारें हो गई हैं. और शॉपिंग मॉल्स?    अब तो लगातार तीसरी बार तुम्हारे रहनुमा तुम्हें विकास यानी तरक़्क़ी की राह पर ले जाने को तैयार हैं.    पर तुम हो कि अब भी हर आने जाने वाले को वही पुरानी कहानी सुनाती हो.    जैसे कि मुझे सुनाई तुमने अपनी रामकहानी कि कैसे उस सुबह तुम चाय पी के बैठी थीं और अचानक तुमने देखा कि टुल्ले के टुल्ले आ रहे थे. हथियारों से लैस लोगों की भीड़.    कैसे तुम और तुम्हारा आदमी पुलिस वालों के पास मदद माँगने पहुँचे और फिर पुलिस वालों ने तुम्हें ये कह कर भगा दिया कि आज तुम्हारा मरने का दिन है, वापिस घर जाओ.    अब ऐसी भारी भीड़ के सामने पुलिस वाले क्या कहते भला? बोर हो गया मैं तुम्हारी दास्तान सुनकर.    और अब तुम ये याद करके करोगी भी क्या कि जब तुम और तुम्हारे बच्चे जान बचाने को इधर-उधर भाग रहे थे, तुम्हारा सबसे बड़ा बेटा पीछे छूट गया?    ये याद करके भी क्या करोगी कि उसको भीड़ ने पाइप, लाठियों और तलवारों से मारा.    और ये याद करके भी क्या करोगी कि जब उसका कत्ल किया जा रहा था तो तुम जाली के पीछे से छिपकर देख रही थी और तुम्हारी आँखों के सामने ही भीड़ ने उसपर मिट्टी का तेल डालकर उसे जला डाला?    देखो सब आगे बढ़ गए हैं. तुम कब तक उन यादों में उलझी रहोगी. तुम लोगों की सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि तुम भूल नहीं सकते.    ग़ुस्सा सबको आया था तब. आया था कि नहीं? सब पढ़े-लिखे अँग्रेज़ी बोलने वाले लोगों ने रुँधे गले से कहा था - दिस इज़ अनएक्सेप्टेबल.    फिर एक्सेप्ट कर लिया ना?    अमिताभ बच्चन ने किया. अंबानी ने किया. रतन टाटा ने किया.    शरीफ़ा बीबी तुम बड़ी कि रतन टाटा? तुम बड़ी कि अंबानी और अमिताभ बच्चन? रहो अपनी ज़िद पर अड़ी हुई. अरे कहाँ इतने नामवर लोग और कहाँ तुम? कुछ सोचो.    अब देखो ना, अहमदाबाद में अपने होटल के कमरे में बैठकर जिस समय तुमको मैं ये ख़त लिख रहा हूँ, टेलीविज़न की स्क्रीन से पूरे देश का ग़ुस्सा फटा पड़ रहा है.    दिल्ली की एक बस में चार लोगों ने नर्सिंग की पढ़ाई कर रही 23 साल की एक लड़की के साथ चार लड़कों ने बलात्कार किया, लोहे के सरियों से उसके पेट पर इतने प्रहार किए कि उसकी आँते तक कुचल गईं. उस लड़की और उसके दोस्त के कपड़े उतारकर हमलावर उन दोनों को चलती बस से फेंक कर चलते बने.    अभी फिर से सभी नेता और अभिनेता रो रहे हैं. कह रहे हैं कि दिस इज़ अनएक्सेप्टेबल.    आज जिसे अनएक्सेप्टेबल कहा जाता है, पढ़े लिखे लोग कल उसे एक्सेप्टेबल मान लेते हैं या फिर उसका ज़िक्र ही नहीं करते.    तुम्हारी क्या मत्ति मारी गई है, शरीफ़ा बीबी? तुम भी धीरे से कहना सीखो --दिस इज़ अनएक्सेप्टेबल. और फिर भूल जाओ.    होश की दवा खाओ, शरीफ़ा बीबी, होश की दवा!

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