1857 के स्वतंत्रता संग्राम के नायक अज़ीम शायर और अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फर ( 24.10.1775 - 7.11.1862 ) को सलाम जिन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी के शासकों ने सज़ा के रूप में उनके सभी पुत्रों की हत्या के बाद देश से निर्वासित कर रंगून भेज दिया था ज़हां बेहद दुखद परिस्थितियों में उनकी मौत हुई। बहादुर शाह ज़फर को यह अफ़सोस अंतिम समय तक रहा कि क़ब्र के लिए उन्हें वतन की मिट्टी भी नसीब नहीं हुई ! उनका मातृभूमि के लिए जो प्रेम था वोह दुःख के इन शब्दों में निकला था ....
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलमे-नापायेदार में
बुलबुल को बागबां से न सैय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद थी लिखी फ़स्ले-बहार में
इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहां है दिले-दागदार में
इक शाख़े-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
कांटे बिछा दिए हैं दिले-लालज़ार ने
उम्रे-दराज़ मांग के लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए, दो इंतज़ार में
दिन ज़िंदगी के ख़त्म हुए, शाम हो गई
फैला के पांव सोएंगे कुंजे-मज़ार में
है कितना बदनसीब 'ज़फर ' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
एडमिन : 08
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के नायक अज़ीम शायर और अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फर ( 24.10.1775 - 7.11.1862 ) को सलाम जिन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी के शासकों ने सज़ा के रूप में उनके सभी पुत्रों की हत्या के बाद देश से निर्वासित कर रंगून भेज दिया था ज़हां बेहद दुखद परिस्थितियों में उनकी मौत हुई। बहादुर शाह ज़फर को यह अफ़सोस अंतिम समय तक रहा कि क़ब्र के लिए उन्हें वतन की मिट्टी भी नसीब नहीं हुई ! उनका मातृभूमि के लिए जो प्रेम था वोह दुःख के इन शब्दों में निकला था ....
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलमे-नापायेदार में
बुलबुल को बागबां से न सैय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद थी लिखी फ़स्ले-बहार में
इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहां है दिले-दागदार में
इक शाख़े-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
कांटे बिछा दिए हैं दिले-लालज़ार ने
उम्रे-दराज़ मांग के लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए, दो इंतज़ार में
दिन ज़िंदगी के ख़त्म हुए, शाम हो गई
फैला के पांव सोएंगे कुंजे-मज़ार में
है कितना बदनसीब 'ज़फर ' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
एडमिन : 08
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